लक्ष्मी जी की कथा
एक ब्राह्मण था| रोज पीपल में जल चढ़ाता था| पीपल में से लड़की कहती पिताजी मैं तेरे साथ चलूँगी| ब्राह्मण सूखने लगा| ब्राह्मणी बोली क्यूँ सूखते जा रहे हो| ब्राह्मण बोला पीपल में से एक लड़की कहती है पिताजी मैं तेरे साथ चलूँगी| ब्राह्मणी बोली कल उस लड़की को ले आना| जहां छ: लड़की हैं वहीं सातवीं सही|
ब्राह्मण दूसरे दिन उस लड़की को ले आया| अब आटा मांगने गया तो थैला भर-भर के मिला| जब ब्राह्मणी आटा छानने लगी तो वो लड़की बोली माँ मैं छानुंगी| ब्राह्मणी बोली, ना बेटी पावनी| मैं कर लूँगी| तू धोली धोली हो जाएगी| बेटी बोली ना माँ, मैं ही छानुंगी| अब उसने छाना तो परात भर गयी| जब ब्राह्मणी खाना बनाने लगी तो बेटी बोली माँ खाना मेँ बनाऊँगी| माँ बोली न बेटी तेरी उंगली जल जाएगी| बेटी बोली न माँ मैं ही बनाऊँगी| रसोई मेँ गयी और छत्तीश प्रकार के भोजन बनाए| सबको पेट भर-भर के खिला दिया| और दिन तो सब भूखे रहते थे उस दिन सभी ने पेट भर भर के खाया|
ब्राह्मणी का भाई आया बोला जीजी मुझे तो भूख लगी है| रोटी खाऊँगा: बहन सूखने लगी| ब्राह्मणी सोचने लगी “अब सबने खाना खा लिया पर इसको कहाँ से खिलाऊँगी”| बेटी बोली माँ क्या बात है तो माँ बोली तेरा मामा आया है रोटी खाएगा| बेटी रसोई में गयी और जाकर छत्तीश तरह के भोजन बनाए और लाकर मामा को जिमा दिया| मामा बोला जीजी ऐसा भोजन कभी ना खाया जैसा आज खाया है| ब्राह्मणी बोली भाई ये खाना तेरी पावनी भांजी ने बनाया है| मामा खाना खाके चला गया|
शाम हुई बेटी बोली माँ चौका लगा के चौका का दीया जला दियो आज मैं कोठे मेँ सोउंगी| माँ बोली ना बेटी तू डर जाएगी पर बेटी ना मानी और जिद्द करके कोठे मेँ सो गयी| अब आधी रात को उठी चारों तरफ आँख मारी धन ही धन हो गया| बेटी जाने लगी| बाहर बूढ़ा ब्राह्मण सो रहा था| बेटी को जाते देख उससे पूछने लगा बेटी तू कहाँ चली? वो बोली मैं तो लक्ष्मी माता हूँ| इसके छ: छ: बेटी हैं इसलिए इसकी दरिद्रता दूर करने आई थी| तुझे भी अपनी दरिद्रता दूर करवानी हो तो तू भी करवा ले| अब उसके घर में चारों तरफ आँख फिराई तो धन ही धन हो गया| सवेरे उठ के ढूंढ मची पावनी बेटी कहाँ गयी| ब्राह्मण बोला वो तो लक्ष्मी माता थी तेरे साथ साथ मेरे भी दरिद्र दूर कर गयी| जैसे लक्ष्मी माता ने उसका दरिद्र दूर किया वैसा सबका करें| कहते सुनते हुंकारा भरते का|